Madhubala - The Matchless Beauty
Saturday, January 16, 2010
Preface of the Biography of Madhubala (Madhubala : Dard Ka Safar)
अपनी बात
हमारे देश में फिल्म लेखन को गंभीरता से नहीं लिया जाता है, जबकि जनमानस पर जिन विषयों का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है उनमें सिनेमा अत्यंत महत्वपूर्ण है। आज भले ही फिल्म निर्माण व्यवसाय में तब्दील हो गया है और फिल्में बनाने का एकमात्रा लक्ष्य मुनाफा कमाना रह गया है, लेकिन एक समय था जब फिल्म निर्माण का उद्देश्य केवल मुनाफा नहीं था और उस समय की फिल्मों तथा फिल्मों से जुड़ी हस्तियों ने सामाजिक चेतना को साकारात्मक तरीके से प्रभावित किया। जनमानस पर जितना प्रभाव साहित्य और कला का रहा संभवतः उससे अधिक प्रभाव सिनेमा का पड़ा।
जनमानस को गहराई तक प्रभावित करने वाली सिने हस्तियों में मधुबाला भी शामिल रहीं। मधुबाला को गुजरे कई दशक बीत चुके हैं इसके बावजूद अपने सौंदर्य और अपने अभिनय की बदौलत वह आज भी भारतीय सिनेमा की आइकन बनी हुई हंै। मधुबाला के समय की तुलना में आज का समाज बहुत बदल गया है लेकिन आज भी मधुबाला की तरह बनना और दिखना ज्यादातर लड़कियों का सपना रहता है। अत्यंत निर्धन परिवार में जन्मी और पली-बढ़ी मधुबाला ने लोकप्रियता का जो शिखर हासिल किया वह विलक्षण प्रतीत होता है। लेकिन इतना होेने के बावजूद भी मधुबाला के जीवन के ज्यादातर पहलुओं से लोग अनजान हैं। इस पुस्तक में मधुबाला से जुड़े उन्हीं अनछुए पहलुओं को टटोलने की कोशिश की गई है। मधुबाला की कहानी गर्दिश से उठकर सितारों तक पहुंचने की कहानी मात्रा नहीं है बल्कि कठोर जीवन संघर्ष की एक मुकम्मल गाथा है जिसे पढ़ने पर पता चलता है कि जो कामयाबी और शोहरत दूर से अत्यंत सुहानी लगती है उसे पाने के लिए कितना कुछ खोना और सहना पड़ता है। मधुबाला की कहानी को पूरे ब्यौरे के साथ जानना इसलिए जरूरी है ताकि यह समझा जा सके कि कामयाबी का सफर जितना सुखद दिखता है दरअसल वह उतना सुखद नहीं होता बल्कि अक्सर उसे कांटे भरे रास्तों पर चल कर पूरा करना होता है।
मधुबाला का जीवन बहुत छोटा रहा। महज 36 साल की जिस उम्र में उन्होंने मौत को गले लगाया उस उम्र में लोग अपने करियर की कायदे से शुरूआत करते हैं लेकिन उन्होंने इस उम्र में ही सबकुछ पा लिया - बेपनाह शोहरत और समृद्धि। लेकिन इसके बाद भी उन्हें वे चीजें नहीं मिलीं जिनके लिए वह जीवन भर तड़पती रहीं। मधुबाला की कहानी जीवन के इस कड़वे सच को समझने के लिए भी जरूरी है।
मधुबाला की कहानी एक और तरह से भी महत्वपूर्ण है। बाल कलाकार के रूप में जब मधुबाला का पदार्पण हुआ और 1942 में फिल्म बसंत में जब वह एक छोटी सी भूमिका में अवतरित हुईं तब भारतीय सिनेमा विकास के आरंभिक चरण में था और जब 1971 में उनकी अंतिम फिल्म ज्वाला रिलीज हुई तब भारतीय सिनेमा का स्वर्ण काल उतार पर था। मधुबाला भारतीय सिनेमा के सबसे सुनहरे दौर की गवाह रहीं और इस तरह मधुबाला के जीवन से गुजरने का मतलब भारतीय सिनेमा के सबसे सुनहरे दौर से गुजरना है।
इस पुस्तक को भारतीय सिनेमा की अनेक प्रतिभावान एवं कामयाब अभिनेत्रियों के बजाय मधुबाला के जीवन पर केन्द्रित करने का फैसला करने के लिए उपरोक्त कारण ही मुख्य रहे। इसे पढ़ने के बाद अगर आपको यह अहसास हो पाए कि मधुबाला को जानना और समझना वाकई जरूरी था तो मैं पुस्तक लिखने के उद्देश्य को पूरा हुआ समझूंगी। इस पुस्तक के आपके हाथ में पहुंचने में कई लोगों का योगदान है लेकिन हैदराबाद की असीमा राय चैधुरी के सहयोग के बगैर यह पुस्तक संभव ही नहीं थी जिनके कारण यह पुस्तक लिखने की प्रेरणा मिली और जिन्होंने इस पुस्तक के लिए अत्यंत जरूरी जानकारियां एवं दुर्लभ फिल्मों की सीडी उपलब्ध कराई।
सुशीला कुमारी
01 जनवरी, 2010
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